
तब से अब तक - नीतीश कुमार।
1995 से 2000 के बीच बिहार में कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब थी । आजादी के 40-45 साल बाद भी बिजली, पानी, सड़क जैसी सुविधाओं का बिहार में घोर अकाल था । कथित संभ्रांत पैसे वाले लोग अपने बच्चों को बिहार से बाहर उच्च शिक्षा के लिए भेज दिया करते थे । मुजफ्फरपुर, पटना, भागलपुर जैसे बड़े शहरों में पढ़ाई का माहौल नहीं रह गया था । तब की सरकार का जोर इन बुनियादी विकास की तरफ नहीं था । उस दौर में नीतीश कुमार ने बिहार को एक सपना दिखाया । बिहार के लोगों ने उस सपने पर भरोसा किया ।
नतीजा हुआ कि 2005 में नीतीश बिहार के तमाम सियासी धुरंधरों को पीछे छोड़ सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठे । उस वक्त स्वर्गीय कैलाशपति मिश्र, रघुनाथ झा, सुशील मोदी, राम विलास पासवान जैसे दिग्गज धुरंधर नेता बिहार की सत्ता के शीर्ष पर हुआ करते थे । लेकिन महज 2 फीसदी जाति से आने वाले नीतीश कुमार सबसे बड़े नेता बन गए । गैर यादव पिछड़ी जाति के वोटरों को नीतीश ने गोलबंद किया। सवर्णों ने साथ दिया । बदलाव की आंधी चली और सत्ता परिवर्तन हुआ ।
2005 से 2010 तक बिहार में बुनियादी सुविधाओं को दुरुस्त करने का जो काम नीतीश कुमार के नेतृत्व में हुआ उसे कोई विरोधी भी झुठला नहीं सकता । ये वो दौर था जब बिहार बदल रहा था । नीतीश कुमार आधुनिक बिहार के नायक के तौर पर स्थापित हुए थे । एक नया सामाजिक समीकरण गढ़ा जा रहा था । आप सभी जानते हैं और नीतीश कुमार के कार्यकाल में बिहार के गांवों में करीब 4 हजार किलोमीटर की सड़कों का निर्माण हुआ । अब तक 6 हजार से ज्यादा पुल-पुलियों का निर्माण हुआ। पुलिस भवन, ओवर ब्रिज, सरकारी स्कूलों की बिल्डिंगों का बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ ।
1.5 करोड़ घरों में नल से जल पहुंचाया । दलित बस्तियों में सड़क का निर्माण कराया । पिछड़े मुस्लिमों के लिए स्कीम लेकर आए । मतलब जिस एक पीढ़ी ने बिहार में विकास होते नहीं देखा था.. उसके लिए ये बहुत बड़ी तस्वीर थी । ये बदलते बिहार की तस्वीर थी । नीतीश कुमार की यही सियासी पूंजी है । इसी वजह से उन्हें समर्थक विकास पुरुष कहते हैं । अपराध पर लगाम लगाया। अपराधियों को जेल भेजा । पुलिस को छूट दी तो सुशासन बाबू की छवि बनी। हां ये बात सही है कि 20 साल तक सत्ता में रहने के बाद जो तस्वीर बिहार की होनी चाहिए वो हुई नहीं है । नीतीश कुमार को भरपूर मौका मिला । उन्होंने बहुत कुछ बिहार को दिया है । और जो लोग आज नीतीश कुमार से इस्तीफा मांग रहे हैं । सवाल उठा रहे हैं ।
उनकी बातों को सहर्ष स्वीकार नहीं किया जा सकता । आज अगर नीतीश कुमार बीजेपी नेताओं के फोन उठाने बंद कर दें... बीजेपी के किसी एक पॉलिसी की खुलकर आलोचना कर दें तो विपक्ष अपना मुंह बंद कर लेगा । अगर नीतीश कुमार ने लालू परिवार की इफ्तारी में जाने का फैसला कर लिया तो फिर विपक्ष बहुत हमलावर नहीं हो पाएगा । असल में नीतीश कुमार बिहार की सत्ता के केंद्र हैं । वो दोनों तरफ की जरूरत हैं । जिस तरफ जाएंगे उसका पलड़ा भारी होगा । अभी वो बीजेपी की तरफ हैं लिहाजा आरजेडी को दिक्कत है । आरजेडी के साथ जाने का कल को फैसला कर लें तो यही बीजेपी वाले हमलावर होंगे । असल में बिहार में विरोध की ये सियासत सुविधा के हिसाब से होती है ।
नीतीश कुमार में इतने अवगुण हैं तो फिर 1 जनवरी को लालू यादव ने दरवाजा खोलने का बयान क्यों दिया । राबड़ी देवी ने सदन में साथ आने का ऑफर क्यों दिया...मीसा भारती ने परिवार का सदस्य क्यों बताया ? देखिए विरोध राजनीतिक हो..मुद्दों के आधार पर हो तो जायज है । जिस विषय को मुद्दा बनाया जा रहा है वो मुद्दा ही नहीं है । 2002 में राबड़ी देवी सीएम थी । 26 जनवरी को झंडा फहराने के बाद राष्ट्रगान हुआ तो लालू यादव और राबड़ी देवी दोनों कुर्सी पर बैठे थे । उस वक्त भी खूब हल्ला हंगामा विपक्ष ने किया था । आज भी वही हो रहा है । नीतीश कुमार को बीमार बताने की कोशिश हो रही है । नीतीश बीमार हैं या नहीं ये बेहतर उनके साथ रहने वाले बताएंगे । लेकिन जो दिख रहा है उसमें बहुत कुछ बताने की जरूरत नहीं है । ऐसे में अपमान का मुद्दा महज सियासी है...नैतिक नहीं ।
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