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कोमल कश्यप की शानदार रचना AI 171 की आखिरी उड़ान

कोमल कश्यप की शानदार रचना AI 171 की आखिरी उड़ान

लेखक कोमल काश्यप 

"नमस्कार! एयर इंडिया की फ्लाइट AI 171 में आपका स्वागत है..."

ये अनाउंसमेंट मेरे कानों में आज भी गूंजते हैं

सोचता हूं....

मैं हूं कौन?

क्या मैं वही टूटा, बिखरा, जला , विमान हूं

जो आज पड़ा हुआ है एक कोने में...


दोस्तो..

मेरा नाम है AI 171.

मैं सिर्फ लोहे का नहीं, जज़्बातों का भी बना था


खुला आसमान मेरा घर था

और ये बादल मेरे साथी

जानते हैं आप...

मैंने हज़ारों उड़ानें भरी हैं


जहां तक मुझे याद है.....

लगभग 11 साल हो गए होंगे मुझे।

आसमान मेरी किताब थी,

जिसके हर पन्ने को पढ़ा है मैंने। 


कई मुसाफ़िरों के सपनों की उड़ान भरी है मैंने

कइयों को वक़्त से पहले अपनों तक पहुंचाया है मैंने

तो... कइयों की पहली वीज़ा का सफर था मैं।


मैं उड़ान था — उन उम्मीदों का, सपनों का, मुलाक़ातों का।


मगर उस एक तारीख़ ने सब कुछ बदल दिया।

आज भी याद करता हूं 12 जून को तो रूह कांप जाती है मेरी

सब कुछ आंखों के सामने घूमने लगता है


मुझे याद है...

12 जून 2025 की तारीख थी,

दोपहर का समय था

मैं अपने निर्धारित समय से उड़ान भरने को तैयार था

मैंने कभी अपने यात्रियों को इंतज़ार नहीं करवाया

हमेशा समय से आगे रहा...


उस दिन अहमदाबाद की धूप कुछ ज़्यादा शांत थी

गर्मी अपने चरम पर था

रोज़ाना की तरह मैं खड़ा यात्रियों का इंतज़ार करता रहा

वो आते गए

मुस्कुराते, खेलते

मेरी सीट पर बैठते गए

एक परिवार 6 साल के इंतज़ार के बाद विदेश जा रहा था

कोई मां अपने बेटे से मिलने जा रही थी तो...

कोई अपनी नौकरी का इंटरव्यू देने जा रहा था

एक बच्चा पहली बार खिड़की वाली सीट पे बैठा बहुत खुश था

उन सब के चेहरे की खुशी मुझे आज भी याद है

कुछ विदेशी यात्री भी दिखे जो भारत घूम कर अपने कैमरा में क़ैद तस्वीरों को देख रहे थे

यात्रियों की खुशी, कैबिन क्रू की मुस्कान

और कैबिन में घुल रही चाय, कॉफ़ी की ख़ुशबू — सब कुछ सामान्य था उस दिन।


मैं उड़ने को तैयार था

उन्हीं बादलों के बीच

एक नई उमंग के साथ

जैसे ही मेरे पहियों ने रनवे को छुआ, मानो मेरी धड़कनें चलने लगी हों,

मेरे यात्रियों ने मेरे साथ उड़ान भरी

मैं उठा — रोज़ाना की तरह

पूरे यक़ीन से, पूरे फ़ख्र से

तेज़ हवाओं को चीरता बढ़ने लगा

625 फीट की ऊंचाई मैंने एक पल में तय कर डाले

पर न जाने उस दिन आसमान इतना शांत क्यों लगा


मैं हवाओं से बातें करता

कि कुछ अजीब सा अहसास हुआ

मेरे इंजन ने कांपते हुए मुझसे कुछ कहा

इंजन फुसफुसाया....

"कुछ ठीक नहीं...

कुछ गड़बड़ है!"

मैं समझा नहीं

या यूं कहूं कि अंजाम सोच कर समझना नहीं चाहता था,


अचानक... मैं थमने लगा

मैंने अपने इंजन से कहा —

"रुक जाओ!! मेरे भीतर कई ज़िंदगियां सांस ले रही हैं

उनकी हंसी, सपने, मुस्कान मत छीनो"


मैंने पूरी ताक़त लगाई

पर मानो मेरे दोनों हाथ किसी ने काट दिए हों

मैं कोशिश करता रहा

करता रहा

मगर मैं उठ ही नहीं पाया


सब थम सा गया

मेरे अंदर से चिल्लाने, रोने और घबराने की आवाज़ें आने लगीं

तभी कैबिन से एक आवाज़ सुनाई दी...

"थ्रस्ट नहीं मिल रहा...

हम गिर रहे हैं

मे डे! मे डे! मे डे! "

उनके ये आख़िरी शब्द

आज भी मानो हवाओं में गूंजते हैं


एक झटका, फिर दूसरा

और फिर.....


सब ख़त्म


मैं चाह कर भी कुछ न कर सका

मैं गिरा, टूटा, मेरा सीना फटा, मैं टुकड़ों में बंट गया

मेरे फ़्यूल से भरे इंजन धू-धू कर जलने लगे

मैंने अपने ही भीतर उन ज़िंदगियों को जला डाला

अब डर, ख़ौफ़, शोर — चीखों में बदल गए

दूर-दूर तक सबने उन चीखों को सुना


मैंने...

हां मैंने...

उनकी सांसें छीन लीं

मैंने उनसे उनकी ज़िंदगी छीन ली।


सच कहता हूं दोस्तों, मैंने बहुत कोशिश की


ये सारे लोग...

मेरे पायलट दोस्तों को दोषी ठहरा रहे

अरे यक़ीन नहीं तो जा कर

मेरी आख़िरी उड़ान की वीडियो देख लो जिसमें

गिरते वक़्त भी मेरा चेहरा आसमान की ओर था

वो पायलट आख़िरी सांस तक मुझे उठाने की कोशिश करते रहे।

वो मुझे भीड़ से बचाते हुए नीचे लाने की कोशिश करते रहे मगर मैं लड़खड़ाता गया

और कई मासूम बच्चों पर जा गिरा


वो अपने थाली लगाकर बैठे ही थे

मैंने उनसे उनकी भूख और ज़िंदगी दोनों छीन ली

वो सफेद कोट पहनने का सपना देखने वाले — हमेशा-हमेशा के लिए नींद में सो गए।


मेरे बोझ तले सिर्फ़ शरीर नहीं

उनके सपने भी दब गए


मैं ज़िम्मेदार था — पर अपने ही हाथों मजबूर भी था


अरे! किस-किस पर इल्ज़ाम लगाऊं

किसे दोषी कहूं

हो रही है नाम की जांच-पड़ताल

हो रही है दिखावे की खोजबीन

पर नहीं चाहिए मुझे ये सब


मैंने सुना

उन मासूमों की जान के बदले कुछ पैसे की पेशकश की जा रही है।

मेरे यात्रियों की ज़िंदगी का कोई मोल नहीं।

मेरे लिए वो अनमोल थे।


उनकी सुरक्षा मेरी ज़िम्मेदारी थी

और मैं उस दिन टूट गया

मैं उस दिन हार गया


उस दिन के बाद से सब बदल सा गया है

लोग हवाई जहाज़ में बैठने से डर रहे

लोगों की आंखों में डर, ख़ौफ़ देखा है मैंने

दोस्तों ज़रूरी नहीं जो मेरे साथ हुआ

वो सभी के साथ हो

शायद मेरी आख़िरी उड़ान की यादें चीखों और आंसुओं से लिखी जानी थीं।


अस्पताल में रोते-बिलखते परिवार से बस यही कहूंगा —

"मुझे माफ़ करना

मेरी कोई ग़लती नहीं थी"


वहां मैंने एक नौजवान को देखा

वो अपनी प्रेमिका के इंतज़ार में बैठा रो रहा था

उसे उम्मीद थी कि वो सामने से आकर

उसे गले लगा लेगी

कोई बाप अपने बेटे को पागलों की तरह खोज रहा

तो कहीं गिड़गिड़ाते हुए एक मां कह रही —

"हमें... हमें बस उनके शरीर दिखा दो

हम पहचान लेंगे"


अब मैं उनसे क्या कहूं

"कैसे!? अम्मा!? कैसे पहचानोगे

जब सब कुछ जल गया मेरे भीतर

उन जले शरीरों में अपने बेटे को कैसे खोजोगे

राख में किस-किस को ढूंढोगी ।"


किसी तरह एक यात्री को मैं बचा पाया।

मुझे याद है वो 11A नंबर सीट पर था

वो मेरे आपातकालीन निकास से बाहर निकल पाया

सोचता हूं काश...

काश सभी सीटों पे ऐसा निकास होता।

मगर अफ़सोस...


मुझे माफ़ करना सभी

जिन्होंने अपनों को खोया।


आज भी जब कोई आसमान की ओर देखेगा

तो मुझे वहीं पाएगा

धुंधली सी परछाईं में

इतिहास के पन्नों में


दोस्तो कोई अगर आपसे 

कभी पूछे

AI171 कहां है?

तो कह देना —

वो अब ज़मीन पर तो नहीं,

मगर यादों में ज़िंदा है।


मैं हूं विमान AI171

ओह! सॉरी सॉरी!!

मैं था विमान — AI171

और ये थी मेरी... आख़िरी उड़ान।

                                                         - कोमल कश्यप

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